शादी ब्याह या अन्य मांगलिक अवसरों पर आयोजित सामूहिक भोजन को हिमाचल में धाम कहते हैं। धाम का मुख्य आकर्षण है सभी मेहमानों को समान रूप से, जमीन पर बिछी पंगत पर एक साथ बैठाकर खाना खिलाना। खाना आमतौर पर पत्तों के बनाए हुए पत्तल पर ही परोसा जाता है और किसी-किसी क्षेत्र में साथ में दोने भी रखे जाते हैं.मंडी क्षेत्र के खाने की खासियत है सेपू बड़ी, जो बनती है बड़ी मेहनत से और खाई भी बड़े चाव से जाती है। यहां मीठा (मूंगदाल या कद्दू का), छोटे गुलाब जामुन, मटर पनीर, राजमा, काले चने (खट्टे), खट्टी रौंगी (लोबिया) व आलू का मदरा (दही लगा) व झोल (पकौड़े रहित पतली कढ़ी) खाया व खिलाया जाता है। आइए जानें कहाँ और कैसे परोसी जाती है परम्परा के स्वाद वाली धाम.
सैंकड़ों वर्ष पुरानी है यह परम्परा
हिमाचली खाना बनाने, परोसने व खाने की सैंकड़ों बरस पुरानी परंपरा के साथ-साथ एक कहावत भी पक चुकी है- पूरा चौका कांगड़े आधा चौका कहलूर, बचा खच्या बाघला धूढ़ धमाल हंडूर। इसके अनुसार चौके (रसोई) की सौ प्रतिशत शुद्घता तो कांगड़ा में ही है। कहलूर (बिलासपुर) क्षेत्र तक आते-आते यह पचास प्रतिशत रह जाती है। बचा खुचा बाघल (सोलन) तक और हंडूर (नालागढ़) क्षेत्र तक आते-आते धूल, मिट्टी में जूतों समेत बैठ कर खाना खा लिया जाता है।
क्रम के साथ आते हैं पकवान
प्रदेश की राजधानी शिमला के ग्रामीण अंचल से शुरू करें तो वहां माह (उड़द) की दाल, चने की दाल, मदरा (स्पेशल सब्जी) के रूप में दही में बनाए सफेद चने, आलू, जिमीकंद, पनीर, माहनी (खट्टा) में काला चना या पकौड़े, मीठे में बदाणा या छोटे गुलाब जामुन। मीठे के बाद और मिठाई भी परोसी जाती है। हालांकि परंपरा के मुताबिक सभी पकवान एक निश्चित क्रम से आने चाहिए मगर समय के साथ थोड़ा बहुत बदलाव कई जगह आ चुका है।
पहले वोटी ही बांटते थे धाम
चंबा में दोने भी पतल का साथ देते हैं। यहां चावल, मूंग साबुत, मदरा, माह, कढ़ी, मीठे चावल, खट्टा, मोटी सैंवियां खाने का हिस्सा हैं। यहां मदरा हैड बोटी (खाना बनाने वाली टीम का मुखिया) डालता है। किसी जमाने में बोटी पूरा अनुशासन बनाए रखते थे और खाना-पीना बांटने का सारा काम बोटी ही करते थे। एक पंगत से उठ कर दूसरी पंगत में बैठ नहीं सकते थे। खाने का सत्र पूरा होने से पहले उठ नहीं सकते थे। मगर जीवन की हड़बड़ाहट व अनुशासन की कमी ने बदलाव लाया है।
कहीं पेठे का तो कहीं कद्दू का बनता है खट्टा
कांगड़ा में चने की दाल, माह (उड़द साबुत), मदरा (दही चना), खट्टा (चने अमचूर), पनीर मटर, राजमा, सब्जी (जिमीकंद, कचालू, अरबी), मीठे में ज्यादातर बेसन की रेडीमेड बूंदी, बदाणा या रंगीन चावल भी परोसे जाते हैं। यहां चावल के साथ पूरी भी परोसी जाती है। हमीरपुर में दालें ज्यादा परोसी जाती हैं। वहां कहते हैं कि पैसे वाला मेजबान दालों की संख्या बढ़ा देता है। मीठे में यहां पेठा ज्यादा पसंद किया जाता है मगर बदाणा व कद्दू का मीठा भी बनता है। राजमा या आलू का मदरा, चने का खट्टा व कढ़ी प्रचलित है।
सलूणा भी है लोकप्रिय
ऊना में सामूहिक भोज को कुछ क्षेत्रों में धाम कहते हैं, कुछ में नहीं। पहले यहां नानकों, मामकों (नाना, मामा की तरफ से) की धाम होती थी। यहां पतलों के साथ दोने भी दिए जाते हैं विशेषकर शक्कर या बूरा परोसने के लिए। यहां चावल, दाल चना, राजमा, दाल माश खिलाए जाते हैं। दालें वगैरह कहीं-कहीं चावलों पर डलती है कहीं अलग से। यहां सलूणा (कढ़ीनुमा खाद्य, इसे बलदा भी कहते हैं) खास लोकप्रिय है। यह हिमाचली इलाका कभी पंजाब से हिमाचल आया था सो यहां पंजाबी खाने-पीने का खासा असर है।
कहीं मीठे का है नियमित प्रचलन
बिलासपुर क्षेत्र में उड़द की धुली दाल, उड़द, काले चने खट्टे, तरी वाले फ्राइ आलू या पालक में बने कचालू, रौंगी (लोबिया), मीठा बदाणा या कद्दू या घिया के मीठे का नियमित प्रचलन है। समृद्घ परिवारों ने खाने में सादे चावल की जगह बासमती, मटर पनीर व सलाद भी खिलाना शुरू किया है। सोलन के बाघल (अर्की) तक बिलासपुरी धाम का रिवाज है। उस क्षेत्र से इधर एकदम बदलाव दिखता है। हलवा-पुरी, पटांडे खूब खाए खिलाए जाते हैं। सब्जियों में आलू गोभी या मौसमी सब्जी होती है। मिक्स दाल और चावल आदि भी परोसे जाते हैं। यहां खाना धोती पहन कर भी नहीं परोसा जाता है।
मंडी की सेपू बड़ी है ख़ास
मंडी क्षेत्र के खाने की खासियत है सेपू बड़ी, जो बनती है बड़ी मेहनत से और खाई भी बड़े चाव से जाती है। यहां मीठा (मूंगदाल या कद्दू का), छोटे गुलाब जामुन, मटर पनीर, राजमा, काले चने (खट्टे), खट्टी रौंगी (लोबिया) व आलू का मदरा (दही लगा) व झोल (पकौड़े रहित पतली कढ़ी) खाया व खिलाया जाता है। कुल्लू का खाना मंडीनुमा है। यहां मीठा (बदाणा या कद्दू), आलू या कचालू (खट्टे), दाल राजमा, उड़द या उड़द की धुली दाल, लोबिया, सेपू बड़ी, लंबे पकौड़ों वाली कढ़ी व आखिर में मीठे चावल खिलाए जाते हैं।
यहाँ मिलता है शराब और मांस
किन्नौर की दावत में शराब व मांस का होना हर उत्सव में लाजमी है। हालांकि शाकाहारी बढ़ रहे है, इसलिए यहां बकरा कटता ही है। खाने में चावल, पूरी, हलवा, सब्जी (जो उपलब्ध हो) बनाई जाती है। लाहौल-स्पीति का माहौल ज्यादा नहीं बदला। वहां तीन बार मुख्य खाना दिया जाता है। चावल, दाल चना, राजमा, सफेद चना, गोभी आलू मटर की सब्जी और एक समय भेडू (नर भेड़) का मीट कभी फ्रायड मीट या कलिचले। सादा रोटी या पूरी (भटूरे जैसी जिसके लिए रात को आटा गूंथ कर रखते हैं) खाते हैं। परोसने के लिए कांसे की थाली, शीशे या स्टील का गिलास व तरल खाद्य के लिए तीन तरह के प्याले इस्तेमाल होते हैं। नमकीन चाय, सादी चाय व सूप तीनों के लिए अलग से।
सीडू है यहाँ का लोकप्रिय व्यंजन
सिरमौर के एक तरफ हरियाणा व साथ-साथ उत्तराखंड लगता है, इसलिए यहां के मुख्य शहरी क्षेत्रों में सिरमौर का पारंपरिक खाना सार्वजनिक उत्सवों व विवाहों में तो गायब ही रहता है, भीतरी ग्रामीण इलाकों में चावल, माह की दाल, पूड़े, जलेबी, हलवा या फिर शक्कर दी जाती है। पटांडे, अस्कलियां, सिडो सिरमौर के लोकप्रिय व्यंजन हैं। लड़के की शादी में बकरे का मीट भी लाजमी है।
अब आ गया है बदलाव
इस बदलाव के जमाने में लोग अब मिल बैठकर धाम कम ही खाते हैं. भौतिकवादी जीवन में खड़े खड़े धाम खाना जहाँ आज फैशन समझा जाता है वहीँ पत्तों से बने हुए पत्तल भी नहीं दिखते, पत्तलों का स्थान आज नकली बर्तनों ने ले लिया है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से घातक हैं. आज जहां हमने अपनी कितनी ही सांस्कृतिक परंपराओं को भुला दिया है , वहीं हिमाचली खानपान की समृद्ध परंपरा बिगड़ते-छूटते भी काफी हद तक बरकरार है।