मीराबाई चानू – घोर ग़रीबी और असफलता से ओलंपिक पदक का सफ़र

भारतीय महिला भारोत्तोलक “साईखोम मीरा बाई चानू” ने टोक्यो ओलंपिक की 49 किग्रा स्पर्धा में सिल्वर मेडल जीतकर इतिहास रच दिया। मीरा बाई चानू ओलंपिक गेम्स के पहले दिन मेडल जीतने वाली पहली महिला बन गई हैं।

मीरा बाई चानू ने सिल्वर जीतकर भारत का भारोत्तोलन स्पर्धा में मेडल जीतने का 21 साल लंबा इंतजार खत्म किया है।

26 साल की चानू ने क्लीन एवं जर्क में 115 किग्रा और स्नैच में 87 किग्रा से कुल 202 किग्रा वजन उठाकर रजत पदक अपने नाम किया।

इससे पहले कर्णम मल्लेश्वरी ने सिडनी ओलंपिक 2000 में देश को भारोत्तोलन में कांस्य पदक दिलाया था।

बताते हैं कि मीराबाई बचपन में तीरंदाज यानी आर्चर बनना चाहती थीं. लेकिन कक्षा आठ तक आते-आते उनका लक्ष्य बदल गया. दरअसल कक्षा आठ की किताब में मशहूर वेटलिफ्टर कुंजरानी देवी का जिक्र था.

भारोत्तोलन की शुरुआत

मणिपुर से आने वालीं मीराबाई चानू का जीवन संघर्ष से भरा रहा है. मीराबाई का बचपन पहाड़ से जलावन की लकड़ियां बीनते बीता. वह बचपन से ही भारी वजन उठाने की आदि हैं.

जब वह सिर्फ 12 साल की थीं, वह आसानी से जलाऊ लकड़ी का एक बड़ा गट्ठर उठा कर घर ले जाती थी जब कि उनके बड़े भाई के लिए इसे उठाना भी मुश्किल हो जाता था।

घोर असफलता से ओलंपिक पदक का सफ़र

2016 रियो ओलंपिक में मीराबाई अपने वर्ग में सामान्य वजन भी नहीं उठा पायीं थी और अपने राउंड को ख़त्म भी नहीं कर पायीं थी, और प्वाइंटस टेबल में उनके नाम के आगे लिखा था – Did not finish। यह काफ़ी शर्मनाक और दिल तोड़ने वाला प्रदर्शन था।

जब भारत के खेल प्रेमियों ने यह ख़बर पढ़ीं तो मीराबाई रातों रात भारतीय प्रशंसकों की नज़र में विलेन बन गईं थीं. नौबत यहाँ तक आई कि 2016 के बाद वो डिप्रेशन में चली गईं और उन्हें हर हफ्ते मनोवैज्ञानिक के सेशन लेने पड़े.

इस असफलता के बाद एक बार तो मीरा ने खेल को अलविदा कहने का मन बना लिया था. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में ज़बरदस्त वापसी की.

मीराबाई चानू ने 2018 में ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रमंडल खेलों में 48 किलोवर्ग के भारोत्तोलन में गोल्ड मेडल जीता था और अब ओलंपिक मेडल.

बांस से की प्रैक्टिस

बिना ख़ास सुविधाओं वाला उनका गांव इंफ़ाल से कोई 200 किलोमीटर दूर था. उन दिनों मणिपुर की ही महिला वेटलिफ़्टर कुंजुरानी देवी स्टार थीं और एथेंस ओलंपिक में खेलने गई थीं.

2007 में जब प्रैक्टिस शुरु की तो पहले-पहल उनके पास लोहे का बार नहीं था तो वो बाँस से ही प्रैक्टिस किया करती थीं.

गाँव में ट्रेनिंग सेंटर नहीं था तो 50-60 किलोमीटर दूर ट्रेनिंग के लिए जाया करती थीं. डाइट में रोज़ाना दूध और चिकन चाहिए था, लेकिन एक आम परिवार की मीरा के लिए वो मुमकिन न था।

11 साल में वो अंडर-15 चैंपियन बन गई थीं और 17 साल में जूनियर चैंपियन. जिस कुंजुरानी को देखकर मीरा के मन में चैंपियन बनने का सपना जागा था, अपनी उसी आइडल के 12 साल पुराने राष्ट्रीय रिकॉर्ड को मीरा ने 2016 में तोड़ा- 192 किलोग्राम वज़न उठाकर.

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