26 जुलाई 1999 के दिन भारतीय सेना ने कारगिल युद्ध के दौरान चलाए गए ‘ऑपरेशन विजय’ को सफलतापूर्वक अंजाम देकर भारत भूमि को घुसपैठियों के चंगुल से मुक्त कराया था। इसी की याद में ‘26 जुलाई’ अब हर वर्ष कारगिल दिवस के रूप में मनाया जाता है – Kargil vijay diwas
कारगिल विजय दिवस हिमाचल के 52 शूरमाओं की भी वीरगाथा है। कारगिल युद्ध में पूरे भारतवर्ष से 527 वीर जवानों ने भारत मां की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का सर्वोच्च बलिदान दिया। अढ़ाई महीने तक चले इस युद्ध में वीरभूमि हिमाचल प्रदेश के 52 सपूत शहीद हुए थे। इन वीरों के बलिदान ने न सिर्फ कारगिल की विजयगाथा लिखी, बल्कि छोटे से प्रदेश हिमाचल को मिले वीरभूमि के तमगे को भी कायम रखा।
मां भारती की रक्षा में अपने प्राणों का सर्वोच्च बलिदान देने वाले ये सपूत आज भी प्रदेशवासियों के जहन में अमर हैं। इस युद्ध में हिमाचल के 10 जिलों से 52 रणबांकुरों ने वीरगति प्राप्त की।
करगिल युद्ध में शहीद होने वालों में प्रदेश से सबसे अधिक सपूत कांगड़ा जिला से थे। सबसे पहले इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने वालों में भी दो जवान जिला कांगड़ा के थे। इनमें पालमपुर के बंदला से ताल्लुक रखने वाले लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और धर्मशाला के खनियारा से संबंध रखने वाले सिपाही सुनील कुमार थे।
इनमें कांगड़ा जिला से 15 वीरों ने देश की खातिर हंसते-हंसते अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। कांगड़ा के बाद शहादत का जाम पीने वालों में मंडी जिला था। यहां से दस सपूतों ने देश की खातिर वीरगति पाई।
इसके बाद हमीरपुर से आठ, बिलासपुर से सात, शिमला से चार, सोलन से दो, ऊना से दो, सिरमौर से दो, जबकि चंबा और कुल्लू से एक-एक वीर जवान देश की रक्षा करते हुए शहीद हुआ।
देश की खातिर जान गंवाने वाले इन 54 शूरमाओं के घरों में तो मातम था ही, लेकिन प्रदेश का कोई ऐसा घर नहीं था, जो गम में न डूबा हो। करगिल युद्ध को 23 साल हो गए हैं, लेकिन अपने लाल गंवा चुकी माताओं के आंसू आज तक नहीं सूख पाएं हैं। हर साल ये दिन गमगीन यादों को फिर से ताजा कर देता है।
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