हिमाचल में काफी समय पहले तक घराट ही आटा पीसने का मुख्य जरिया हुआ करते थे। हर गाँव में एक घराट हुआ करता था जहाँ गाँव के लोग गेहूं आदि पीसने के लिए छोड़ आते थे तथा बारी आने पर ही आटे को वहां से लाते थे। यह खेद का विषय है कि आज के चकाचौंध में घराट संस्कृति अब अपनी अंतिम साँसें गिन रही है।
उजड़ चुके हैं कई घराट
आज के समय में आटा पीसने के कई घराट उजड़ चुके हैं। ये घराट अक्सर खड्ड के किनारे हुआ करते थे। खड्ड में बाढ़ आने के कारण भी कई घराट पानी की भेंट चढ़ चुके हैं। तथा कई घराट मानव की अनदेखी का शिकार होकर उजड़ने के कगार पर हैं।
अक्सर रहते हैं बंद
आज जो घराट बचे हुए हैं उनमें से अब पानी की कमी के कारण कई बंद पड़े हैं। अब अधिकतर घराट या तो बंद रहते हैं या फिर यहाँ लोग कम संख्या में ही आटा पिसवाने आते हैं।
घराटों के उजड़ने के मुख्य कारण
घराटों के उजड़ने का कारण आधुनिकता की दौड़,बेतहाशा बिजली परियोजनाएं हैं। इसके अलावा एक और कारण है कि लोगों की अब गेहूं व मक्की की खेती के प्रति उदासीनता है।
पानी की ग्रेविटी से चलते हैं
घराट किसी खड्ड या नाले के किनारे कूहल से निकाले हुए पानी की ग्रेविटी से चलते हैं। घराट के पहिए को चट्टान से काटकर बनाया जाता है। लकड़ी या लोहे की बड़ी बड़ी फिरकियाँ पानी के वेग से घूमती हैं तथा आटा पिसता रहता है।
स्वाद होता है घराट का आटा
घराटों में खूब महीन आटा पीसा जाता है और इससे बनी रोटियों का स्वाद भी चक्की के आटे के स्वाद से अलग होता है। घराट के आटे को पौष्टिक माना जाता है। घराट को चलाने वाले व्यक्ति को देसी भाषा में घराटी कहा जाता है। आटा पीसने के बदले घराटी को किराए के रूप में थोड़ा आटा देना पड़ता था जिसे भाड़ा कहा जाता है।
लोग आज भी पसंद करते हैं घराट का आटा
हालांकि बिजली से चलने वाली चक्की में भी दो चक्के ही आटे को पीसते हैं लेकिन हिमाचल के लोग इलेक्ट्रिक चक्की में पिसे आटे के बजाय परम्परागत घराट में हुई पिसाई को पहले से खूब पसंद कर रहे हैं। इलेक्ट्रिक चक्की के आटे में वह बात कहाँ जो घराट के पीसे आटे में होती है।
इस संस्कृति को बचाना है जरूरी
घराट की इस परम्परागत संस्कृति को आज हमें बचाना होगा। जो घराट उजड़ने के कगार पर हैं उन्हें फिर से संवारना होगा। केवल मानव ही अपनी इस संस्कृति को संजो कर रख सकता है नहीं तो एक दिन घराट पूरी तरह से लुप्त हो जाएंगे।