श्री बाबा बालकनाथ जी के पूजनीय स्थल को “दयोटसिद्ध” के नाम से जाना जाता है, यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिले के चकमोह गाँव की पहाडी के उच्च शिखर में स्थित है.
प्राकृतिक गुफा में है डेरा
मंदिर में पहाडी के बीच एक प्राकॄतिक गुफा है, ऐसी मान्यता है, कि यही स्थान बाबाजी का आवास स्थान था. मंदिर में बाबाजी की एक मूर्ति स्थित है, भक्तगण बाबाजी की वेदी में “ रोट” चढाते हैं, “ रोट ” को आटे और चीनी/गुड़ को घी में मिलाकर बनाया जाता है.
बकरे की नहीं दी जाती बलि
यहाँ पर बाबाजी को बकरा भी चढ़ाया जाता है, जो कि उनके प्रेम का प्रतीक है, यहाँ पर बकरे की बलि नहीं दी जाती बल्कि उनका पालन पोषण किया जाता है.
महिलाओं के प्रवेश पर है प्रतिबन्ध
बाबाजी की गुफा में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबन्ध है, लेकिन उनके दर्शन के लिए गुफा के बिलकुल सामने एक ऊँचा चबूतरा बनाया गया है, जहाँ से महिलाएँ उनके दूर से दर्शन कर सकती हैं. मंदिर से करीब 6 किलोमीटर आगे “शाहतलाई” नामक स्थान स्थित है, ऐसी मान्यता है कि इसी जगह बाबाजी “ध्यानयोग” किया करते थे.
हर युग में हुआ बाबा जी का अवतार
बाबा बालकनाथ जी की कहानी बाबा बालकनाथ अमर कथा में पढ़ी जा सकती है, ऐसी मान्यता है कि बाबाजी का जन्म सभी युगों में हुआ जैसे कि सत्य युग, त्रेता युग, द्वापर युग और वर्तमान में कलयुग और हर एक युग में उनको अलग-अलग नाम से जाना गया जैसे “सत युग” में “ स्कन्द ”, त्रेता युग में “कौल” और द्वापर युग में “महाकौल” के नाम से जाने गए. अपने हर अवतार में उन्होंनें गरीबों एवं दीं दुखियों की सहायता करके उनके दुख दर्द और तकलीफों का नाश किया. हर एक जन्म में यह शिव के बडे भक्त कहलाए.
भगवान शिव ने दिया था आशीर्वाद
द्वापर युग में ”महाकौल” जिस समय “कैलाश पर्वत” जा रहे थे, जाते हुए रास्ते में उनकी मुलाकात एक वृद्ध स्त्री से हुई. उसने बाबा जी से गन्तव्य में जाने का अभिप्राय पूछा, वृद्ध स्त्री को जब बाबाजी की इच्छा का पता चला कि वह भगवान शिव से मिलने जा रहे हैं तो उसने उन्हें मानसरोवर नदी के किनारे तपस्या करने की सलाह दी और माता पार्वती, (जो कि मानसरोवर नदी में अक्सर स्नान के लिए आया करती थीं) से उन तक पहुँचने का उपाय पूछने के लिए कहा. बाबाजी ने बिलकुल वैसा ही किया और अपने उद्देश्य, भगवान शिव से मिलने में सफल हुए. बालयोगी “महाकौल” को देखकर शिवजी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने बाबाजी को कलयुग तक भक्तों के बीच सिद्ध प्रतीक के तौर से पूजे जाने का आशीर्वाद आयु तक उनकी छवि को बालक की छवि के तौर पर बने रहने का भी आशीर्वाद दिया.
इस स्थान में बने सिद्ध
कलयुग में बाबा बालकनाथ जी ने गुजरात, काठियावाड़ में “देव” के नाम से जन्म लिया. उनकी माता का नाम लक्ष्मी और पिता का नाम वैष्णो वैश था. बचपन से ही बाबाजी ‘आध्यात्म’ में लीन रहते थे. यह देखकर उनके माता पिता ने उनका विवाह करने का निश्चय किया, परन्तु बाबाजी उनके प्रस्ताव को अस्वीकार करके ‘परम सिद्धी’ की राह पर निकल पड़े. और एक दिन जूनागढ़ की गिरनार पहाडी में उनका सामना “स्वामी दत्तात्रेय” से हुआ और यहीं पर बाबाजी ने स्वामी दत्तात्रेय से “सिद्ध” की बुनियादी शिक्षा ग्रहण की और “सिद्ध” बने. तभी से उन्हें “बाबा बालकनाथ जी” कहा जाने लगा.
शाहतलाई में मौजूद हैं अभी भी प्रमाण
बाबाजी के दो पृथक साक्ष्य अभी भी उपलब्ध हैं जो कि उनकी उपस्थिति के अभी भी प्रमाण हैं जिन में से एक है “गरुन का पेड़” यह पेड़ अभी भी शाहतलाई में मौजूद है, इसी पेड़ के नीचे बाबाजी तपस्या किया करते थे. दूसरा प्रमाण एक पुराना पुलिस स्टेशन है, जो कि “बड़सर” में स्थित है जहाँ पर उन गायों को रखा गया था जिन्होंने सभी खेतों की फसल खराब कर दी थी, जिसकी कहानी इस तरह से है कि एक महिला जिसका नाम ’ रत्नो ’ था, ने बाबाजी को अपनी गायों की रखवाली के लिए रखा था जिसके बदले में रत्नो बाबाजी को रोटी और लस्सी खाने को देती थी.
तपस्या में रहते थे लीन
ऐसी मान्यता है कि बाबाजी अपनी तपस्या में इतने लीन रहते थे कि रत्नो द्वारा दी गई रोटी और लस्सी खाना भी याद तक नहीं नहीं रहता था. एक बार जब रत्नो बाबाजी की आलोचना कर रही थी कि वह गायों का ठीक से ख्याल नहीं रखते {जबकि रत्नो बाबाजी के खाने पीने का खूब ध्यान रखतीं थीं} रत्नो का इतना ही कहना था कि बाबाजी ने पेड़ के तने से रोटी और ज़मीन से लस्सी को प्रकट कर दिया.
ब्रह्मचर्य का किया पालन
बाबाजी ने सारी उम्र ब्रह्मचर्य का पालन किया और इसी बात को ध्यान में रखते हुए उनकी महिला भक्त ‘गर्भगुफा’ में प्रवेश नहीं करती जो कि प्राकृतिक गुफा में स्थित है जहाँ पर बाबाजी तपस्या करते हुए अंतर्ध्यान हो गए थे.
जय श्री बाबा बालकनाथ