जोगिन्दरनगर : दशहरा पर्व के अवसर पर आप सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं. मंगलवार को दशहरा पर्व पूरे देश में बड़ी ही धूमधाम के साथ मनाया जा रहा है. एक पुतले को जलाकर यह समझ लेना कि बुराई का अंत हो गया, अपने आप को धोखा देने के समान है. क्या आप को नहीं लगता आज के समय में दशहरा अपनी प्रासंगिकता खो चुका है. अधिकतर लोग लालच, चोरी, वासना, दुराग्रह (दूसरों के प्रति बुरी भावना), ईर्ष्या, घृणा, क्रोध से भरे हुए हैं. पर-स्त्री गमन, रेप व महिलाओं से सम्बंधित अन्य अपराध चरम पर हैं. फिर हर बार, रावण के पुतले को जलाना अत्यंत हास्यकर सा प्रतीत होता है.
बुराई पर हुई थी अच्छाई की जीत
दशहरा अयोध्या की राजा मर्यादा पुरषोत्तम (पुरुषों में श्रेष्ठता की मिसाल) श्रीराम की लंका के राजा रावण पर विजय के उपलक्ष्य में मनाया जाता है. बुराई के प्रतीकों को दर्शाने के लिए रावण, उसके भाई कुम्भकर्ण और बेटे मेघनाद के बड़े-बड़े पुतले बनाकर उन्हें जलाया जाता है. यह दर्शाने के लिए की बुराई की हमेशा हार होती है और अच्छाई की जीत, अत: हमें अपने अंदर की बुराइयों को भी जला देना चाहिए।
श्रीराम ने किया था रावण का अंत
रावण ने श्रीराम की पत्नी सीताजी का अपहरण किया था और उन पर लगातार दबाव बनाया कि वह उनसे शादी कर लें. सीताजी किसी भी अन्य पतिव्रता स्त्री की तरह रावण के हर दबाव, प्रलोभन, डर, मानसिक प्रताड़ना आदि के आगे नहीं झुकीं। राम ने रावण से सीताजी को लौटाने का हर-संभव आग्रह किया लेकिन वह नहीं माना और युद्ध करने पर आमादा हो गया. अंत में श्रीराम को उसे युद्ध में हराकर मारना पड़ा और सीताजी को लेकर अयोध्या लौटे.
चारों वेदों का ज्ञाता था रावण
गौरतलब है कि रावण चारों वेदों का ज्ञाता, अति विद्वान था लेकिन दूसरे की स्त्री को पाने के मोह में मारा गया. यहाँ तक भी कहा जाता है कि, चूंकि रावण तत्व-ज्ञाता था और वह जानता था कि श्रीराम भगवान विष्णु के अवतार थे इसलिए वह उनके हाथों मरकर स्वयं और अपने सम्बन्धियों को सीधे मोक्ष में प्रवेश कराना चाहता था इसलिए उसने सारा प्रपंच रचा.
आज हर जगह अपराध है चरम पर
आज के समय में दशहरा अपनी प्रासंगिकता खो चुका है. अधिकतर लोग लालच, चोरी, वासना, दुराग्रह (दूसरों के प्रति बुरी भावना), ईर्ष्या, घृणा, क्रोध से भरे हुए हैं. पर-स्त्री गमन, रेप व महिलाओं से सम्बंधित अन्य अपराध चरम पर हैं. हम इस दौर में हैं जहाँ रिश्वत, अधिक से अधिक धन-संग्रह, सामाजिक धन, सुविधाओं और संसाधनों का अपने परिवार के लिए उपयोग आदि बुराइयां लोगों के जीवन का हिस्सा बन चुकीं हैं और इन्हें बुरा भी नहीं समझा जाता.
पुतला भर जला लेने से नहीं हो जाता बुराई का अंत
एक पुतले को जलाकर यह समझ लेना कि बुराई का अंत हो गया, अपने आप को धोखा देने के समान है. फिर हर बार, रावण के पुतले को जलाना अत्यंत हास्यकर है. यह लकीर का फ़कीर बने रहने का सबसे अच्छा उदाहरण है. वैसे भी अधिकतर लोगों के लिए यह ऐसी ही अन्य कई “छुट्टियों” की तरह एक “छुट्टी” भर है.
अपराधियों के जलाए जाने चाहिये पुतले
आज के युग में समाज जहाँ अपराधियों से भरा पड़ा है, मेरे विचार में, हर दशहरे पर ऐसे अपराधियों के पुतले जलाये जाने चाहियें जिन्होंने समाज, खासकर महिलायों के प्रति जघन्य अपराध कियें हों. साथ में इस-दिन हर चैनल पर उन सभी अपराधियों की तस्वीरें दिखाई जाएँ और उनकी भी तस्वीरें दिखाई जाएँ जो अपराध करने के बाद भी क़ानून की पकड़ से बाहर हैं. कुछ ऐसे ही अन्य उपाय करके इस त्यौहार की प्रासंगिकता को बचाया जा सकता है.