सोमवार को संत कबीर दास जयंती देशभर में धूमधाम से मनाई जा रही है. कबीर हिंदी साहित्य के महिमामण्डित व्यक्तित्व हैं. कबीर के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं. कुछ लोगों के अनुसार वे रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए थे, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था. ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फैंक आई.
कबीर के माता- पिता के विषय में एक राय निश्चित नहीं है कि कबीर “नीमा’ और “नीरु’ की वास्तविक संतान थे या नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था. कहा जाता है कि नीरु जुलाहे को यह बच्चा लहरतारा ताल पर पड़ा पाया, जिसे वह अपने घर ले आया और उसका पालन-पोषण किया. बाद में यही बालक कबीर कहलाया.
कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई. ऐसा भी कहा जाता है कि कबीर जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म का ज्ञान हुआ. एक दिन कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े थे, रामानन्द ज उसी समय गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया. उनके मुख से तत्काल `राम-राम’ शब्द निकल पड़ा. उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया. कबीर के ही शब्दों में- `हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये’. अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदु-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फक़ीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया.
जनश्रुति के अनुसार कबीर के एक पुत्र कमल तथा पुत्री कमाली थी. इतने लोगों की परवरिश करने के लिये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था. साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था.
कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है. इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है. वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे.
उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया. आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है. वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे. अवतार, मूर्ति, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे.
उस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था. कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी. उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके. इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई. इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे.
कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे. अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका आदर हो रहा है.
कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे. वह न चाहकर भी, मगहर गए थे. वृद्धावस्था में यश और कीर्त्ति की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया. उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं. कबीर मगहर जाकर दु:खी थे:
111 वर्ष की अवस्था में मगहर में कबीर का देहांत हो गया. कबीरदास जी का व्यक्तित्व संत कवियों में अद्वितीय हैं. हिन्दी साहित्य के 1200 वर्षों के इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त इतना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व किसी कवि का नहीं है.