सायर : सौभाग्य के प्रतीक के रूप में मनाया जाने वाला पर्व

16 सितंबर 2016 पर विशेष

हिमाचल प्रदेश में तीज-त्यौहार पहाड़ी संस्कृति के परिचायक हैं. यहाँ हर त्यौहार और उत्सव का अपना विशेष महत्व है. क्रमानुसार भारतीय देसी महीनों के बदलने और नए महीने के शुरू होने के प्रथम दिन को सक्रांति कहा जाता है. लगभग हर सक्रांति पर हिमाचल प्रदेश में कोई न कोई उत्सव मनाया जाता है जो कि हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी संस्कृति का प्राचीन भारतीय सभ्यता या यूं कहें तो देसी कैलेंडर के साथ एकरसता का परिचायक है.

लगभग हर देसी महीने कोई न कोई उत्सव या त्यौहार मनाया जाता है. भादों का महीना समाप्त होते ही असूज या आश्विन महिना शुरू होता है. इस सक्रांति को जो उत्सव पड़ता है वह है सैर यानि सायर उत्सव. यह उत्सव हिमाचल के सीमित जिलों में ही मनाया जाता है. भादों यानि काले महीने में मायके गई नवेली दुल्हनें भी इस महीने अपने ससुराल वापिस आ जाती हैं.

इस उत्सव को मनाने के पीछे एक धारणा यह है कि प्राचीन समय में बरसात के मौसम में लोग दवाईयां उपलब्ध न होने के कारण कई बीमारियों व प्राकृतिक आपदाओं का शिकार हो जाते थे तथा जो लोग बच जाते थे वे अपने आप को भाग्यशाली समझते थे तथा बरसात के बाद पड़ने वाले इस उत्सव को ख़ुशी ख़ुशी मनाते थे. तब से लेकर आज तक इस उत्सव को बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है.

सैर पूजन की सामग्री

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अगली सुबह मुहं-सवेरे ही सायर की सामग्री वाली टोकरी को घर के अन्दर लाया जाता है. इस टोकरी में गणेश जी को स्थापित कर सारी सामग्री की पूजा की जाती है. रक्षा बंधन को बंधी डोरी को भी आज ही के दिन खोला जाता है और उसे भी सायर के पात्र में रख दिया जाता है. परिवार के सभी सदस्य एक एक करके सायर के पात्र को माथे से लगा लेते हैं और प्रार्थना करते हैं कि जिस प्रकार इस बार सुखपूर्वक आई है आगे भी ऐसे ही आते रहना. सायर पूजन के बाद उसे गौशाला में घुमाया जाता है और फिर पानी में विसर्जित कर दिया जाता है.

अखरोट का महत्व

सायर उत्सव में अखरोट का विशेष महत्व है. सायर से कुछ दिन पहले ही अखरोट पेड़ से उतार लिए जाते हैं उनका छिलका निकालने के बाद उन्हें धुप में सुखाया जाता है और सायर उत्सव के लिए उन्हें सम्भाल कर रख लिया जाता है. सैर के दिन सैर पूजन की सामग्री का पानी में विसर्जन करने के बाद घर, पड़ोस व रिश्तेदारों में राल यानि अखरोट की भेंट दी जाती है. यह राल दरब, फूलों व अखरोटों की होती है. राल देने के बाद अपने से बड़ों के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लिया जाता है.

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प्राचीन काल में यह उत्सव आठ दिनों तक मनाया जाता था. लोग अपने सगे सम्बन्धियों के पास अखरोट व पकवानों की भेंट ले जाते थे और इस उत्सव को बड़े ही प्यार और ख़ुशी के साथ मनाते थे. इस दिन लोग कई तरह के पकवान बनाते थे. पकवानों में पतरोडू, कचौरियां, भल्ले, खीर, बबरू आदि बनाये जाते थे. इन पकवानों को घर परिवार के लोग दूध,दही,घी,मक्खन और शहद के साथ बड़े ही स्वाद के साथ खाते थे.

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इस दिन पालतू पशुओं को सैरू घास चराया जाता था. सैरू घास वह घास होता है जिसे बरसात में जंगल में पशुओं के लिए बचा कर रखा जाता था और सायर के दिन पशुओं को उस स्थान पर चराया जाता था. इसी दिन नाई भी अपनी टोकरी में सैर सजा कर घर घर जाता था और पकवानों का मजा लेता था.

अखरोट की बाजी

सुबह सुबह ही लोग गाँव में अखरोट खेलने के लिए भीड़ लगा देते थे और दिन भर हार जीत की बाज़ी चलती थी. अखरोट खेलने के लिए भी एक विशेष जगह कुछ दिन तैयार की जाती थी जिसे खीती कहते थे. कुछ दूरी से क्रमानुसार अखरोट फैंके जाते थे. खीती से अखरोट की दूरी के अनुसार खेलने वाले की बारी आती थी. इस दिन जुर्माना भी रखा जाता था. अगर किसी का निशाना चूक जाता और किसी और अखरोट में निशाना लग जाता तो जुर्माने के रूप में अखरोट देना पड़ता था. एक व्यक्ति के पास विशेष प्रकार का बड़ा अखरोट होता था जिसे भुट्टा कहते थे. भुट्टा मालिक अपना भुट्टा उधार नहीं देता था बल्कि उसके बदले अखरोट लेता था.

लेकिन अब वो बात कहाँ

खेद का विषय है कि वर्तमान में भौतिकता के वातावरण ने सब कुछ बदल दिया है. आज की पीढ़ी इन सब बातों से किनारा कर रही है जोकि प्राचीन संस्कृति के लिए घातक है. आज लोग समय का बहाना बना कर ऐसे उत्सवों से दूर होते जा रहे हैं तथा दिन प्रतिदिन इस तरह के उत्सव सिमटते जा रहे हैं जोकि प्रदेश की संस्कृति को खतरा हैं. न आज गाँव में वो अखरोट खेलने वालों की टोलियाँ होती हैं न ही इस तरह के पकवान बनाये जाते हैं. लोग आज घर में उत्सव मनाने के बजाय होटलों तक ही सिमट गए हैं. आज जरूरत है इस प्रकार के तीज त्यौहारों को मिलजुल के मनाने की ताकि आपसी भाईचारा कायम रहे व हमारी संस्कृति भी जिन्दा रहे.

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