जोगिन्दरनगर शहर से तीन किलोमीटर की दूरी पर डिभणु गाँव के पास सुंदर पहाड़ी में स्थित है माँ जालपा का मंदिर. कहते है सालोँ पहले क्षेत्र के अंतिम राजा जोगिन्दर सेन जो काफी दयालु तथा न्याय प्रिय थे अपने राज्य के लोगोँ पर होने वाले प्राकृतिक प्रकोपों से बड़े चिंतित रहते थे.
बाढ़ से होता था काफी नुक्सान
ख़ास कर नदी क्षेत्र में बाढ़ से होने वाले भूमि कटाव के कारण होने वाली हानि के कारण. कुछ सालोँ से बरसात में नदी के जल द्वारा द्वारा बार-बार रास्ता बदलने के कारण काफी मात्रा में अन्न-क्षेत्र बाढ़ की भेंट चढ़ चुका था और बरसात फिर आने को थी. कोई उपाए नहीं सूझ रहा था.
राजा को हुआ स्वपन
इसी उधेड़बुन में एक रात जब राजा सोया तो राजा के स्वपन में एक देवी कन्या आई. अति सुन्दर साक्षात भगवती स्वरूपा देवी को देख कर राजा स्वत: नतमस्तक एवं धन्य अनुभव कर रहे थे. माँ-स्वरूपा देवी के मुख से अंत्यंत तेज़ झलक रहा था. राजा के पूछने पर कि वो कौन थीं तथा उनके आने का प्रयोजन क्या था, देवी ने कहा कि वे वही भगवती देवी हैं जिनका राजा मान्य तथा पूजन किया करते थे.
रणा नदी में बहकर आई माँ की मूर्ति
क्षेत्र के लोगोँ के दिलोँ में धर्म कर्म में आस्था बनाये रखने के लिए तथा विपरीत और विपदा समय में उनका साहस तथा बल बनाये रखने का प्रयोजन लेकर क्षेत्र की बगला घाटी में वह मूर्ति रूप में वह स्थापित होना चाहती हैं. देवी ने बताया कि अमुक समय अमुक स्थान में वह जल की सवारी कर अर्थात स्थानीय रणा नदी पाषाण मूर्ति में बह कर आने वाली थी. राजा अपने कार्य-बल से पाषाण मूर्ति को प्राप्त करके बताये गए स्थान पर स्थापित करके नियमित पूजन करे-करवाए तो उत्तम होगा.
जाल डाल कर निकाली माँ की मूर्ति
नियत समय तथा स्थान पर राजा प्रशिक्षित तैराकोँ तथा स्थानीय मछुआरोँ को लेकर पहुंचा. नदी उफान पर थी. नदी के तेवर देखकर राजा को कार्य-सिद्धि पर संदेह हो रहा था क्योँकि वह किसी का जीवन खतरे में नहीं डालना चाहता था. उसने निर्देश दिया कि जब तक वह न कहे कोई भी नदी के जल में प्रवेश नहीं करे. हाँ, मछुआरे अपने-अपने जाल से प्रयास कर सकते थे.
माँ भगवती के जयकारों से गूँज उठी बगला घाटी
नियत समय में पाषाण मूर्ति वह कर आयी. कहतें हैं काफी मात्रा में फल-फूल देवी मूर्ति के साथ में बह रहे थे. तैराक नदी में प्रवेश करना चाहते थे परन्तु राजा ने नदी का उफान देख कर उनको रोक लिया. अचानक एक मछुआरे ने जाल फेंका और मूर्ति को खींच लिया. राजा और अन्य उपस्थित लोगोँ के हर्ष का ठिकाना न था. लोग राजा जोगिन्दर सेन तथा माँ भगवती का जय-जयकार कर रहे थे.
जालपा नाम से प्रसिद्ध हुई देवी
धूमधाम से मूर्ति को नियत स्थान में ले जाकर स्थापित किया गया. बुद्धिजीवियोँ द्वारा विचार-विमर्श करने के उपरान्त माँ का नामकरण किया गया. चूंकि वह जल की सवारी करके आई तथा उनको जाल द्वारा प्राप्त किया अत: उनका नाम जालपा उचित समझा गया. आज भी माँ माता जालपा देवी के नाम से जानी जाती हैं.
कहते हैं उस दिन से लेकर आज तक स्थानीय नदी ने वैसी हानि नहीं की जैसे पहले हो रही थी.