कड़ी मेहनत से तैयार होती है धान की फसल

यह तो हमने कई बार पढ़ा और सुना है कि विज्ञान एक वरदान है और अभिशाप भी. विज्ञान आज के युग के लिए वरदान बन चुका है फिर चाहे वह सामजिक, आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्र हो या अन्य कोई क्षेत्र ,हर जगह आज विज्ञान का महत्व है.

इसी प्रकार कृषि के क्षेत्र में भी विज्ञान ने आधुनिक कृषि को जन्म दिया है जिससे किसानों का घंटों का कार्य मिनटों में हो जाता है. प्राचीन समय में धान की खेती में बहुत ही मेहनत करनी पड़ती थी. धान की खेती करना बड़ा ही मुश्किल काम है लेकिन आज भी किसान हर मुश्किल को आसानी से हल कर लेते हैं. धान जून-जुलाई के मध्य में रोपा जाता है तथा अक्तूबर के महीने में फसल पक कर तैयार हो जाती है. धान की फसल को तैयार करने में कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है जोकि किसान के लिए बहुत ही मेहनत का कार्य है.

सबसे पहले धान बीजा जाता है. कई जगह {लुंगे मचना} खेतों में खड़े पानी में अंकुरित धान बीजा जाता है.

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कई किसान {ऊर} पहले से बीज द्वारा तैयार किये गए धान के पौधे रोपते हैं. धान थोड़ा बड़ा होने पर उसके ऊपर हल चलाया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में होड कहा जाता है. होड करने के बाद {ढिम्ब} यानि धान के पौधे को सही ढंग से व्यवस्थित करके लगाया जाता है. {ढिम्ब} लगाने के एक आध महीने के बाद {निदाई} खरपतवार निकाली जाती है.

फसल को काटने के बाद उसे घर में लाने के बाद कुन्द्लू लगाते थे यानि सारे धान को इकट्ठा रख देते थे तथा सर्दी के दिनों में उसे एक {ख्वाड़ा नामक} खुली जगह में {परेर} फैला देते थे और बैलों को उसके ऊपर चलाया जाता था जिससे धान अलग हो जाता था और घास रह जाता था जिसे {पराल} कहा जाता है.

छोटे बच्चे {पराल} घास के ऊपर खेलने का आनंद लेते थे और {घड़मेलियाँ लगाते} सिर के बल खड़े होकर दूसरी तरफ पलटते थे. फिर एक और दौर चला धान को घर में लाने के तुरन्त बाद उसे हाथों से {झफणे} धान अलग करने का, यह रिवाज आज भी ज़ारी है.

आज कई किसानों ने थ्रेशिंग की मशीनें भी ले ली हैं जिससे घंटों का काम मिनटों में हो जाता है. फिर कड़ी मेहनत के बाद धान चावल के रूप में हमारे सामने आता है तथा बड़े ही स्वाद के साथ हम उसका आनन्द उठाते हैं. वक्त बदलता है उसके साथ रीति रिवाज का बदलना भी वक्त की मांग ही तो है.

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