समस्त जगत् अथवा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही ईश्वर का शरीर या उसका विराट रूप है. ईश्वर के व्यक्तित्व की कल्पना मानवीय गुणों या आधार पर नहीं करनी चाहिए. उसे एक विराट पुरुष के रूप में नहीं सोचना चाहिए.
कुछ लोग मानवीय शक्ति के अनुरूप और व्यक्तित्व की अपनी धारणा के अनुसार ईश्वर की कल्पना करने का प्रयत्न करते हैं और ईश्वर की प्रतिमा बना देते हैं. पुराणों में इसी प्रकार के प्रयत्न किये गये हैं किन्तु उनमें दर्शाए गये सारे रूप व चित्र काल्पनिक हैं.
यदि ईश्वर के सहस्त्र हाथ, सहस्त्र नेत्र, सहस्त्र मुख आदि की बात कही जाती है तो यह बिल्कुल भी आवश्यक नहीं है कि इस प्रकार की आकृति वाला कोई पुरुष हो. इस प्रकार के विचार या कथन मात्र उपमा के रूप में या समझाने के लिए दिए गये होते हैं.
सूक्ष्म या निरपेक्ष ब्रह्म (शून्य, null) से जगत् के निर्माण (current state) तक सत्य की चार स्थितियाँ अथवा रूप हैं‒ (1) निरपेक्ष या ‘ब्रह्म’ (2) सृजनात्मक शक्ति, ‘ईश्वर’ (3) विश्व आत्मा, ‘हिरण्यगर्भ’ और (4) जगत्. इनमें से एक स्थिति ‘ईश्वर’ स्रष्टा के रूप में ‘ब्रह्मा’, पालनकर्ता के रूप में ‘विष्णु’ और संहारक के रूप में ‘शिव’ बन जाता है.
ये चार मुख्य रूप और आगे विभाजित तीन उप-रूप केवल हमारी मानसिक अवस्था की सीमा को ध्यान में रखते हुए हमें समझाने मात्र के लिए बनाये गये हैं.