चिंतनीय : एक पिता की उम्मीद का अंतहीन इंतजार

एक परिवार, जो टिका होता है भावनाओं और रिश्तों की बुनियाद पर, लेकिन जब यह बुनियाद दरकने लगती है, तो दर्द और अकेलापन जीवन का हिस्सा बन जाता है।

बेटे को अंतिम समय तक तकती रही आँखें लेकिन वह न आया

आज हम आपको एक ऐसे ही बुजुर्ग की कहानी बताने जा रहे हैं, जो अपने बेटे के लौटने की आशा में जीवन भर प्रतीक्षा करता रहा, लेकिन अंतत: इसी इंतज़ार में उसने अपनी आखिरी सांस ले ली।

यह कहानी केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उन हजारों माता-पिताओं की व्यथा है, जो संतान की प्रतीक्षा में अपनी जिंदगी गवां देते हैं। सुनने में आपको अटपटा लग सकता है।

आप कहेंगे कि ऐसा तो बस फिल्मों में होता है, पर असल जिंदगी में क्या कोई बेटा अपने पिता को भूल सकता है। कितनी भी नाराजगी हो, मगर क्या वह उसके अंतिम दर्शन के लिए भी नहीं आएगा।

यकीन करना मुश्किल है, मगर यह सच है। यह घटना घटी है हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला के सरकाघाट में। एक पिता के लिए उसका बेटा केवल संतान नहीं, बल्कि उसके जीवन की सबसे बड़ी पूंजी होता है।

बेटे के बेहतर भविष्य की कामना में उसने उसे शहर भेज दिया, लेकिन वह दिन कभी नहीं आया जब बेटा लौटकर अपने पिता से मिलने आया हो।

जिंदगी के आखिरी दिनों में बेटे की राह देखते-देखते बुजुर्ग ने अस्पताल में दम तोड़ दिया, लेकिन नसीब में बेटे के अंतिम दर्शन भी नहीं मिले।

यह है पूरी कहानी

मामला उपमंडल सरकाघाट की ग्राम पंचायत जमनी के गांव जनीहण का है, जहां 72 वर्षीय धर्मचंद बीते चार महीने से सरकाघाट नागरिक अस्पताल में उपचाराधीन थे।

सोमवार सुबह अचानक उनकी तबीयत बिगड़ी और उन्होंने दम तोड़ दिया। धर्मचंद पहले पंजाब में रहते थे, लेकिन कुछ साल पहले गांव लौट आए थे।

उनके परिवार में बेटा पंजाब में रहता है, जिसे उनकी बीमारी की जानकारी भी दी गई थी, लेकिन उसने एक बार भी आकर देखने की जहमत नहीं उठाई।

बीमारी के चलते गांववासियों ने धर्मचंद को अस्पताल में भर्ती करवाया, जहां चार महीने तक अस्पताल के डॉक्टर और कर्मचारी उनकी सेवा में लगे रहे।

धर्मचंद अपनी अंतिम घडिय़ों में बेटे की राह तकते रहे, लेकिन न बेटा आया और न ही कोई अन्य परिजन।

उनकी मौत के बाद भी शाम तक कोई स्वजन नहीं पहुंचा। जब पंचायत को इसकी जानकारी मिली तो प्रधान ज्ञान चंद, उपप्रधान सुभाष, चौकीदार जगदीश, वार्ड सदस्य रणजीत सिंह और पूर्व उपप्रधान बृजलाल अस्पताल पहुंचे और नगर परिषद एवं अस्पताल कर्मचारियों के सहयोग से सरकाघाट मोक्षधाम में उनका अंतिम संस्कार करवाया।

अस्पताल कर्मियों की आंखें नम हो गईं, क्योंकि चार महीने तक उनकी सेवा करने के बाद भी कोई अपना उन्हें कंधा देने नहीं आया। यकीनन ये कहानी आंखों को नम कर देने वाली है- कैसे एक बेटा इतना बेरहम हो सकता है।

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