अर्थशास्त्र में एक थ्योरी है-वीसियस सर्किल ऑफ पॉवर्टी। यानी गरीबी का ऐसा दुष्चक्र, जिसमें फंसा व्यक्ति समय के साथ और गरीब होता जाता है। लोन के मामले में हिमाचल प्रदेश की हालत भी अब ऐसी ही है। इसका प्रमाण वर्तमान वित्त वर्ष के आंकड़े हैं। इस साल हिमाचल करीब 11200 करोड़ रुपए नया लोन ले रहा है और 10786 करोड़ पुराने लोन को चुकाने पर खर्च करने पड़ रहे हैं।
कर्ज का दुष्चक्र ऐसा है कि इससे बचा ही नहीं जा सकता। 31 दिसंबर तक राज्य के पास 9700 करोड़ ऋण लेने की अनुमति भारत सरकार से है। इसमें से 7000 करोड़ ले लिया गया है, जबकि 2700 करोड़ अभी और लेना बाकी है।
इस साल की आखिरी तिमाही यानी जनवरी से 31 मार्च के लिए लोन लिमिट अलग से दिल्ली से आएगी। सामान्य परिस्थितियों में भी प्रतिमाह 500 करोड़ के हिसाब से 1500 करोड़ और लेना पड़ेगा। इस तरह इस वित्त वर्ष में कुल लोन राशि 11200 करोड़ हो जाएगी। इस साल के लिए राज्य का बजट 51365 करोड़ था।
इसमें से 5136 करोड़ पुराने लोन का ब्याज ही भरा गया और 5650 करोड़ लोन री-पेमेंट की गई यानी 10786 करोड़ रुपए का लोन के बदले खर्चा इसी साल का है। कर्ज की इस पुरानी देनदारी को चुकाने के लिए नया लोन लेना पड़ रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह राज्य के अपने रेवेन्यू में बढ़ोतरी नहीं हो रही।
न बिजली बेचकर आने वाला पैसा बढ़ रहा है और न ही टूरिज्म से इनकम बढ़ी है। आबकारी और खनिजों की लीज से आने वाला पैसा भी लगभग स्थिर ही है। 2016 से राज्य के कर्मचारियों और पेंशनरों को दिया जाने वाला वेतन आयोग भी इसी साल दिया गया है।
हालांकि इसका भार कम करने के लिए अंतरिम राहत के तौर पर 5500 करोड़ पहले दे दिए गए थे। उसके बावजूद अब भी एरियर और डीए की करीब 10000 करोड़ की देनदारी बकाया है। ऐसे में अगले वित्त वर्ष में स्थितियां और खराब होती हुई दिख रही हैं।
राज्य का जीएसटी कलेक्शन आशातीत नहीं बढ़ा है, जबकि केंद्र सरकार से मिलने वाला राजस्व घाटा अनुदान भी अगले साल 1300 करोड़ कम हो जाएगा। राज्य की वित्तीय स्थिति को संभालना अब नई सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
इनकम बढ़ाने पर सभी पार्टियां साध लेती हैं चुप्पी
हिमाचल के दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्रों में वोट के लालच में कई वादे किए हैं। इसमें कर्मचारियों से लेकर युवाओं और महिलाओं तक सभी वर्गों को शामिल किया गया है, लेकिन इन वादों को लागू करना वर्तमान वित्तीय स्थिति में संभव ही नहीं दिख रहा।
इससे भी बड़ी बात यह है कि दोनों प्रमुख दलों ने राज्य की वित्तीय स्थिति को संभालने के लिए न कोई रास्ता बताया है, न ही कोई फार्मूला दिया है। इसलिए अगले पांच साल भी लोन लेकर ही जैसे-तैसे समय निकालने की नीति रहने की आशंका है। यदि ऐसा हुआ तो कर्ज का फंदा और कस जाएगा।