प्रकृति और मानवीय उल्लास का प्रतीक है होली पर्व

मंडी : हिमाचल प्रदेश में होली का त्योहार प्रकृति और मानवीय उल्लास का प्रतीक है। यहां की होली का वनफूलों की तरह अपना ही अलग रंग है। मंडी की होली की खासियत यह है कि यहां गैरों पर रंग नहीं डाला जाता। बिना जान पहचान के किसी पर रंग नहीं डालते और महिलाएं भी बाजार में होली खेलने आती हैं, लेकिन पहचान वाला बिना रंग के बचता नहीं हैं।

पूरी टोलियां मिलकर एक-दूसरे को रंग लगाकर होली पर्व को हर्षोल्लास से मनाती है। मंडी में राजदेवता माधवराय भी होली के रंग से सराबोर रहते हैं।

छह मार्च यानी सोमवार को मंडी की गलियों में जमकर अबीर गुलाल उड़ेगा। आमतौर पर मंडी की होली देश में मनाई जाने वाली होली से एक दिन पूर्व मनाई जाती रही है।

इस बार यह दो दिन पूर्व ही मनाई जाएगी। ज्योतिषियों की गणना के अनुसार सात मार्च का दिन फाग फूंकने के लिए शुभ नहीं है।

होली की यह मस्ती मंडी में माधोराय की जलेब निकलने के पश्चात समाप्त हो जाती है। मंडी जनपद के ग्रामीण अंचलों में होली का उल्लस और जोश देखते ही बनता है।

गांवों में अबीर गुलाल के अलावा प्राकृतिक रंगों की होली खेली जाती रही है। चीड़ और देवदार के पराग के रूप में निकलने वाला पीला पदार्थ, जिसे स्थानीय बोली में पठावा कहा जाता है। इसे इकट्ठा करके होली इसका उपयोग किया जाता है।

आमतौर देवताओं को तिलक लगाने में भी पठावे का उपयोग किया जाता है। इस दिन कांभल नामक वृक्ष की टहनी को फाग के रूप में जलाने की परंपरा है।

इसके पीछे मान्यता यह है कि जिस तरह से होली का दहन हुआ है, उसी प्रकार रोग और दरिद्रता का भी फाग की इस आग में जल कर भस्म हो जाए, जिससे घर गांव में खुशहाली और समृद्धि आएगी।

इस अवसर पर गांव की महिलाएं चावल के आटे का पकवान चिलहड़ू बनाती हैं, जिसे दूध और घी के साथ खाया जाता है।

हिमाचल की वादियों में होली प्रकृति और मानव के बीच के रिश्तों को सार्थकता प्रदान करते हुए प्रकृति और मानवीय उल्लास के रंगों से सराबोर रहती है। पहाड़ की होली में रंगों और खुशबूओं का अनूठा सामंजस्य होता है।

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