एक गुरु के दो चेले थे. दोनों ने गुरु के एक एक पग (टांग) की सेवा करना बाँट लिया था. एक दिन एक चेला बाज़ार गया था और दूसरा चेला अपने सेवित पग की सेवा में व्यस्त था. गुरु जी निद्रा में थे. अचानक गुरु जी ने करवट बदली और चेले के सेवित पग पर दूसरे गुरु भाई का सेवित पग आन पड़ा. चेले ने सयंम से काम लेते हुए दूसरे पग को हटा दिया और सेवा में जुट गया. थोड़ी देर के बाद फिर वैसा ही हुआ. चेला क्रोधित तो हुआ पर उसने फिर से पग को हटा दिया और सेवा करता रहा. थोड़ी देर के बाद दूसरा पग फिर आन पड़ा. अब की बार चेला अंत्यंत क्रोधित हुआ. उसने आव देखा न ताव पास में पड़ा डंडा उठाया और दूसरे गुरु भाई के सेवित पग पर टूट पड़ा.गुरु जी चीत्कार कर उठे. अंत्यंत कोलाहल मचा. एक सज्जन पास से गुजर रहे थे और शोर सुनकर दोड़े आये. उन्होंने चेले को अंत्यंत प्रेम से समझाया. कहा, अरे नादान ये दोनों पग तुम्हारे गुरु के ही हैं. इनमें से किसी एक को कष्ट होने पर वह कष्ट अन्तत: तुम्हारे गुरु को ही मिलता है.
यह प्रसंग आज धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर बंट रहे समाज के सन्दर्भ में कितना उपयुक्त है.
(सत्यार्थप्रकाश से साभार)