आप सभी को दहशरा पर्व की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। आज हम आपको अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कुल्लू के अद्भुत,अनूठे और बेजोड़ इतिहास से अवगत करवाने जा रहे हैं।
कई सौ साल पहले से शुरू हुए इस इतिहास को आज भी कुल्लू में अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव के मौके पर दोहराया जाता है।
सब दशहरा उत्सव के इतिहास से रू-ब-रू होना चाहते हैं और यहां पर जब देवी-देवताओं के अनूठे इस समागम को देखते हैं, तो उन्हें अपने आप इतिहास की जानकारी मिलनी शुरू होती है।
बता दें कि वर्ष 1650 ई. में कुल्लू रियासत के राजा जगत सिंह ने अपनी राजधानी नग्गर से स्थानांतरित कर सुल्तानपुर स्थापित की।
एक दिन राजा को दरबारी ने सूचना दी कि मड़ोली के ब्राह्मण दुर्गादत्त के पास सुच्चू मोती हैं।
राजा ने उससे मोती मांगे, परंतु उसके पास मोती नहीं थे। राजा के भय के कारण दुर्गादत्त ने अपने परिवार सहित स्वयं को भस्म कर लिया। इससे राजा को एक रोग लग गया।
इसके निवारण के लिए राजा को सिद्धगुरु कृष्णदास पथहारी ने उपाय सुझाया कि यदि आयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर में अश्वमेद्य यज्ञ के समय की निर्मित राम-सीता की मूर्तियों को कुल्लू में प्रतिष्ठापित किया जाए, तो राजा रोगमुक्त हो सकता है।
राजा त्रेतानाथ मंदिर में एक वर्ष तक पुजारियों की सेवा करते हुए पूजा विधि को समझता रहा और एक दिन राम-सीता की मूर्ति उठाकर तत्काल हरिद्वार पहुंच गया।
दामोदर दास वहां पर राम-सीता की पूजा कर रहा था। जोधावर ने पूछा तू क्यों मूर्तियां चुरा लाया, दामोदर दास ने कहा कि में इन मूर्तियों को कुल्लू के राजा जगत सिंह को ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति दिलाने के लिए ले जा रहा हूं।
इस प्रकार मूर्तियां मकराहड़, मणिकर्ण, हरिपुर, नग्गर होते हुए आश्विन की दसवीं को कुल्लू पहुंचीं। जहां भगवान रघुनाथ जी की अध्यक्षता में देवी-देवताओं का बड़ा यज्ञ हुआ।
कालांतर में यही यज्ञ दशहरे के रूप में मनाया जाने लगा, जो आज भी धूमधाम से मनाया जा रहा है।