अंतर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरे का हुआ आगाज़

सात दिन तक चलने वाला कुल्लू का अतंरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव रथ यात्रा के साथ शनिवार को शुरू हो गया। भगवान रघुनाथ का रथ खींचने के लिए श्रद्धालुओं का भारी सैलाब उमड़ आया। सैंकड़ों देवरथों के साथ हजारों वाद्य-यंत्रों की धुन के बीच भगवान रघुनाथ की ऐतिहासिक रथयात्रा निकली।

रघुनाथ जी को लाया गया ढालपुर मैदान तक

हारियानों के साथ देवरथ और पालकियों को सजाया गया था। दोपहर बाद रंगीन एवं सुंदर पालकी से सुसज्जित कुल्लू के अराध्य देव भगवान रघुनाथ जी को पालकी में बिठा कर सुल्तानपुर में मूल मंदिर से ढालपुर मैदान तक लाया गया। कुल्लू का दशहरा पर्व परंपरा, रीति-रिवाज और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व रखता है। यहां का दशहरा सबसे अलग और अनोखे अंदाज में मनाया जाता है। यहां इस त्यौहार को दशमी कहते हैं। अश्विन माह की दसवीं तारीख को इसकी शुरुआत होती है। जब पूरे भारत में बुराई के प्रतीक के पुतले फूंके जाते हैं, उस दिन से घाटी में इस उत्सव का रंग चढ़ने लगता है।

राजघराने के सभी सदस्य लेते हैं आशीर्वाद

कुल्लू के दशहरे में अश्विन महीने के पहले 15 दिनों में राजा सभी देवी-देवताओं को ढालपुर घाटी में रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं। 100 से ज्यादा देवी-देवताओं को रंग-बिरंगी सजी हुई पालकियों में बैठाया जाता है। इस उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती हैं। राजघराने के सभी सदस्य देवी का आशीर्वाद लेने आते हैं।

7वें दिन होता है लंका दहन का आयोजन

उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आकर मिलते हैं जिसे ‘मोहल्ला’ कहते हैं। रघुनाथ जी के इस पड़ाव पर सारी रात लोगों का नाच-गाना चलता है। 7वें दिन रथ को ब्यास नदी के किनारे ले जाया जाता है, जहां लंका-दहन का आयोजन होता है, लेकिन पुतले नहीं फूंके जाते। इसके बाद रथ को दोबारा उसी स्थान पर लाया जाता है और रघुनाथ जी को रघुनाथपुर के मंदिर में स्थापित किया जाता है। इस तरह विश्वविख्यात कुल्लू का दशहरा हर्षोल्लास के साथ संपूर्ण होता है।

दशहरे का इतिहास

कहा जाता है कि साल 1636 में जब जगत सिंह यहां का राजा था, तो मणिकर्ण की यात्रा के दौरान उसने एक गांव में एक ब्राह्मण से कीमती रत्न के बारे में पता चला। जगत सिंह ने रत्न हासिल करने के लिए ब्राह्मण को कई यातनाएं दीं। डर के मारे उसने राजा को श्राप देकर परिवार समेत आत्महत्या कर ली। कुछ दिन बाद राजा की तबीयत खराब होने लगी। तब एक साधु ने राजा को श्रापमुक्त होने के लिए रघुनाथ जी की मूर्ति लगवाने की सलाह दी। अयोध्या से लाई गई इस मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे ठीक भी हुआ और तब से उसने अपना जीवन और पूरा साम्राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया।
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